बनने और होने में अंतर

दिखावा शब्द सुनते ही हमें बड़ा अजीब सा महसूस होता है| हम सब यही चाहते हैं कि जो अन्दर हो वही बाहर हो अर्थात् बातों में बनावटीपन न हो, कोई दिखावा न हो, हमारे पहनावे से तो हम विरक्त और फ़कीर लगें परन्तु हममे उन भावों का अभाव हो, यह बिलकुल ठीक नहीं| कई बार हममे विरक्ति के भाव उठते हैं और हम बिना आगे पीछे सोचे कि क्या मैं फ़कीर बन जाऊँ तो उस भूमिका को बखूबी से निभा पाऊँगा? बिना सोचे ही गृहस्थी छोड़ गेरुए वस्त्र पहिन फकीर बन जाते हैं| परन्तु कई लोग गृहस्थी में रहते हुए भी इस तरह के फकीरों से अलग ही और विरक्ति की बड़ी ऊंची स्थिति में रहते हैं|
इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है|
एक फ़कीर हज के लिए निकला, उस वक़्त वाहन सुविधा न थी अतः उसे पैदल ही जाना था, अँधेरा हो गया, तो उसने एक घर पर जाकर रात रुकने की इजाजत माँगी| उस व्यक्ति का नाम था शाकिर| उसने सोचा मुझे इनकी बहुत अच्छी तरह सेवा व खातिरदारी करनी है और जो बन पड़े भेंट भी देनी है|
फ़क़ीर ने उसकी आवभगत से प्रसन्न होकर उसे इस प्रकार दुआ दी—खुदा करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे|
फकीर की बात सुन शाकिर हंस पड़ा और बोला—अरे फकीर! यह जो है वह भी नहीं रहने वाला|
फकीर चला गया और दो वर्ष बाद लौटकर आया और क्या देखता है कि उसका सारा वैभव चला गया और अब एक जमींदार के यहाँ नौकरी कर रहा है| जब फ़कीर शाकिर से मिला तो उसने अपनी हैसियत के मुताबिक़ स्वागत व सेवा की| इस परिस्थिति को देख फकीर की आँखें भर आयीं और उसके मुँह ये शब्द निकल गए— अल्लाह ये तूने क्या किया?
फकीर की बातें सुनकर शाकिर को हंसी आ गयी और बोल पड़ा — अरे! आप दुखी क्यों हो रहे हैं? खुदा हमें जिस हाल में रखे उसमे हमें खुश रहना चाहिए और उसे धन्यवाद देते रहना चाहिए| ऐसा संत महापुरुषों का कहना है| समय सदा बदलता रहता है| एक समय ऐसा आएगा जब यह भी न रहेगा|
दो वर्ष बाद फ़कीर फिर यात्रा पर निकला और देखता क्या है!
शाकिर तो ज़मींदारों का भी ज़मींदार बन गया है कारण यह कि जिस के यहाँ वह नौकर था वह संतानहीन होने के कारण अपनी ज़मींदारी उसे दे गया|
शाकिर को ज़मींदार देख फ़कीर बड़ा खुश हुआ और बोला –अल्लाह करे अब तू ऐसा ही रहे| इसपर शाकिर बोला अरे! अब भी आप नादान के नादान ही हैं| फ़कीर को शंका हुई और पूछ बैठा – क्या यह भी नहीं रहने वाला है क्या?
उसका जवाब था – या तो यह चला जावेगा या फिर इसको अपना माननेवाला ही चला जावेगा|
यात्रा से लौटते वक़्त जब वहां पहुंचा तो देखता है शाकिर का महल तो है परन्तु एकदम वीरान और शाकिर कब्र में सो रहा है|
बेटियां अपने अपने घर चली गयीं और बूढ़ी पत्नी एक कोने में पडी हुई है|
उस वक़्त फ़कीर के ये भाव थे|
अरे! इंसान तुझे किस बात का गर्व? यहाँ की कोई भी वस्तु या सुख-दुःख कुछ भी टिकनेवाला नहीं|
अतः वही सच्चा इंसान है जो हर हाल में खुश रहे|
फ़कीर के मुंह से ये शब्द अनायास ही निकल पड़े–धन्य है शाकिर– तेरा सत्संग और तेरे सद्गुरु|
असली फकीर तो तू ही है शाकिर! और मैं सिर्फ फकीर बना फिर रहा हूँ|
मन ही मन सोचा अब मैं तेरी कब्र देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त तो करूं| वहां पहुंचकर देखता है कि शाकिर ने अपनी कब्र पर लिखवा रखा है
“आखिर यह भी तो नहीं रहेगा”
अर्थात् दिखावे से काम नहीं चलेगा, गुणों को अपने अन्दर उतारना होगा|

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