हाथ का आभूषण

महान् कवि माघ एक बार घर में बैठे एक रचना लिखने में व्यस्त थे| तभी एक ब्राह्मण उनके पास आया और बोला, “आपसे एक विनती करनी है मेरी एक कन्या है वह विवाह योग्य हो गयी है उसकी शादी की व्यवस्था करनी है आपकी उदारता की चर्चाएँ बहुत दूर-दूर तक फैली हुईं हैं| यदि आपकी कृपा हमारे ऊपर भी हो जाय तो मेरी बेटी का भाग्य बन जाय|’’
माघ स्वयं भी बहुत गरीब थे इसलिए सोचने लग गये, कि इस गरीब ब्राह्मण की समस्या का समाधान कैसे करूँ और ब्राह्मण को खाली हाथ भेजना भी उचित नहीं होगा? माघ यह सोच ही रहे थे कि उनकी नज़र उनकी सोई हुई पत्नी के हाथ पर पड़ी और देखा कि उनके हाथ में सोने के कंगन चमक रहे हैं| उनके घर में यही एक संपत्ति थी| माघ ने सोचा न जाने मांगने पर वह दे या ना दे| सोई हुई है, अच्छा मौका हैं क्यों ना हाथ से चुपचाप एक कंगन निकल लूँ|

माघ जैसे ही कंगन निकालने लगे उनकी पत्नी की नींद खुल गयी और उसने पूछा, कि आप ये क्या कर रहें हैं? फिर माघ ने गरीब ब्राह्मण के बारे में पूरी बात बताई और बोले मैंने तुम्हें इसलिए नहीं जगाया कि कहीं तुम कंगन देने से इनकार न कर दो|
पत्नी बोली, आप अभी तक मुझे समझ नहीं पाए| आप तो बस मेरा कंगन ही ले जाने की सोच रहे थे लेकिन आप मेरा सर्वस्व भी ले जाएं तो भी मैं प्रसन्न रहूंगी मेरा (पत्नी) का इससे अच्छा सौभाग्य और क्या होगा कि मैं आपके (पति) साथ मानव कल्याण में आपके साथ कंधे से कन्धा मिलकर चलती रहूँ और यह कह कर उन्होंने अपने हाथ के दोनों कंगन ब्राह्मण को दे दिए| माघ और उनकी पत्नी की उदारता देख ब्राह्मण की आँखों से आंसू निकल आये और वह ब्राह्मण कंगन लेकर वहां से चला गया|
विषम परिस्तिथियों में स्थित, यदि कोई व्यक्ति हमसे सहायता मांगने चला आये तो, यह मानवधर्म है कि हम उसकी सहायता करें|
यही कारण था कि माघ कवि, उस गरीब ब्राह्मण की सहायता हेतु पत्नी के हाथ के कंगन देने को तैयार हो गये| पत्नी भी इस बात को जानती थी कि ‘हाथ का आभूषण दान है न कि कंगन’|
इसीलिए उन्होंने अपने हाथ के कंगनों को सहर्ष दान में दे दिये|

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