किसी विद्यार्थी का महत्व अधिक क्यों?

कोई भी शिष्य (student) किसी भी गुरु (teacher) का प्रिय हो सकता है| अक्सर हम schools में पढ़ते, पढ़ाते समय यह देखते हैं कि कोई शिष्य किसी शिक्षक का प्रिय हो जाता है| वैसे कहा जाय तो ऐसा होना नहीं चाहिए, पर क्या करें, यह मानव मन! बड़ा ही अजीब है| कब किस की किस बात से रीझ जाए! कहा नहीं जा सकता| कई बच्चे rankers तो नहीं होते हैं परन्तु उनका I.Q. बड़ा तेज होता है, तो कोई अच्छा खिलाड़ी होता है, तो किसी का भोलापन ही भा जाता है, तो कोई क्लास का बड़ा अच्छा monitor होता है|
परन्तु होता क्या है कि शेष बच्चों को उस बच्चे की खासियत तो नहीं दिखती है, परन्तु उन्हें इस बात पर गुस्सा जरूर आता है कि टीचर अमुक student के प्रति partial क्यों हैं|
इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है — –
एक गुरु थे उनके कई शिष्य थे| सभी ब्राह्मण थे सिर्फ एक बालक था जो ब्राह्मण नहीं था| परन्तु गुरु उसे बहुत पसंद करते थे| सभी बच्चे आपस में इसी बच्चे के बारे में बातें किया करते थे, ऐसी क्या बात है कि गुरूजी स्नान के लिए जाते वक़्त तो हम लोगों में से कोई भी उनका हाथ पकडे तो मना नहीं करते, परन्तु स्नान के बाद सिर्फ उस धनुर्दास को ही हाथ लगाने देते हैं|
यह बात गुरूजी के कानों तक पहुँची| उनने सोचा बच्चों को इसका जवाब किसी practical example द्वारा ही देना होगा|
गुरूजी ने कुछ लड़कों को बुलाकर कहा—“आज शाम को जब धनुर्दास मेरे पास आये सत्संग के लिए तब तुम लोग उसकी पत्नी हेमाम्बा के सारे गहने चुरा लाना|
यह सुनकर सब आश्चर्य में पड़ गए | परन्तु आदेश जो था पालन तो करना ही था| आज्ञानुसार सभी बालक धनुर्दास के घर पहुंचे| उस वक़्त हेमाम्बा ध्यान मग्न लेटी हुई थी| उन लड़कों ने सोचा कि ये करवट लेकर नींद में हैं| उन सबने मिलकर जल्दी –जल्दी एक तरफ के गहने निकाल लिए| उसने सोचा कि करवट बदल लूं तो वे दूसरी तरफ के भी निकाल लेंगे, परन्तु उन्हें लगा कि ये तो जाग गई अब तो भागो! तो जितने आभूषण हाथ लगे , लेकर भागे, इन लड़कों के लौटने के बाद गुरूजी ने धनुर्दास को यह कहकर भेज दिया कि काफी रात हो चुकी है| विद्यार्थियों ने गुरूजी के चरणों में गहने रखे|
आचार्य जी ने कहा शीघ्र जाओ धनुर्दास के घर और देखो, उस पर इस बात का क्या असर हुआ? ये सारे बालक धनुर्दास के पीछे –पीछे चल दिए और उसके घर के बाहर खड़े होकर उनकी बातें सुनने लगे|
पत्नी को चिंता मग्न देखा, और उसी क्षण उसकी नज़र उसके गहनों पर पडी –तो पूछा कि ये कौन सा तरीका है एक ही तरफ गहने पहनने का? इसपर हेमाम्बा बोली –अभी कुछ शालीन लोग चोरी के उद्देश्य से घर में घुस आये| मैं तो ध्यान में लेटी हुई थी उन्हें लगा कि मैं सो रही हूँ और एक तरफ के आभूषण उतारने लगे| मैंने सोचा कोई जरूरत मंद होंगे, मेरे आभूषणों से कुछ सहायता हो जायेगी मैंने दूसरे तरफ के गहने भी देने के लिए ज्यों ही करवट बदली, मैं जाग गई समझकर वे भाग गए| मैं उनकी पूरी सहायता न कर सकी|
धनुर्दास ने कहा— इससे भी बड़े दुःख की बात यह है कि तुममे अब भी कर्तव्य भाव बाकी है| तुमने उनकी सहायता करने की बात सोची तभी तो तुमने करवट बदली |
सारी सामग्री तो प्रभु की ही है ,तुम तो वैसी ही पडी रहतीं जितनी और जैसी उनकी आवश्यकता होती वे ले जाते| चलो अब भी कोई बात नहीं ये बचे हुए गहने भी यथा समय फिर प्रभु की सेवा में लग जायेंगे| धनुर्दास के इन शब्दों ने हेमाम्बा में जो बची-कुची कर्तव्य भावना थी उसे भी धो डाला |यह सारा वृत्तान्त शिष्यों ने गुरुजी को सुनाया और शिष्य समझ गए कि जो बात धनुर्दास में है वह हम लोगों में नहीं, इसीलिये गुरुवर उसे ज्यादा चाहते हैं|

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