बनारस प्राचीन काल से ही विश्वनाथजी के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है| एक दिन वहां के पुजारी जी को स्वप्न आया कि तुम धर्मात्माओं की बैठक बुलाओ, और असली धर्मात्मा को यह स्वर्ण पत्र दे दो| पुजारी जी ने ढिंढोरा पिटवा दिया, जिससे सभी जो अपने आप को धर्मात्मा समझते थे या फिर वे जिन्हें लोग धर्मात्मा समझते थे, पहुँच गए|
पुजारी जी ने सबको अपना स्वप्न सुनाया| सब ओर भगवान् विश्वनाथ की जय-जयकार होने लगी| सबने देखा कि अचानक मंदिर अत्यंत तेज प्रकाश से जगमगा उठा| सबने यह देखा कि वह प्रकाश स्वर्ण पत्र पर जड़े हुए रत्नों से निकल रहा है, पुजारी जी ने जब उसे अपने हाथों में उठाकर देखा तो, उसपर लिखा हुआ था कि सबसे बड़े धर्मात्मा को यह विश्वनाथजी का प्रसाद है|
प्रति सोमवार पुजारी जी हर भक्त के हाथ में वह पत्र रखते| सबने यह देखा कि वह मिट्टी के पत्र में बदल जाता| इसलिए अब तक कोई सच्चा धर्मात्मा मिला ही नहीं|
एक दिन एक गरीब किसान आया, सभी अपनी हैसियत के अनुसार मंदिर के बाहर बैठे हुए गरीबों को हलवा पूड़ी जैसी चीजें खिला रहे थे| बेचारे इस गरीब किसान के पास तो ओढने के लिए एक कम्बल और खाने के लिए सिर्फ थोडा सा सत्तू था| उस माँगने वालों की भीड़ में एक कोढ़ी भी बैठा हुआ था, परन्तु कोई भी उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था| इस किसान की दृष्टि उस पर पड़ी और उसने उसे सत्तू खिलाया और अपना कम्बल ओढा दिया|
जैसे ही वह किसान दर्शन कर लौटने को हुआ, पुजारी जी ने उनके हाथ में वह स्वर्ण पत्र रख दिया|
गरीब किसान के हाथ में जाते ही वह स्वर्णपत्र कई गुना प्रकाश से चमकने लगा| सभी उस की प्रशंसा करने लगे|
पुजारी जी ने कहा—यह स्वर्ण-पत्र काशी विश्वनाथ भगवान ने आपके लिए भेजा है क्योंकि आप निर्लोभी हैं, दयालु हैं| आप में दीन-दुखियों के प्रति निस्स्वार्थ सेवा भाव है| भले ही आप धन से अमीर नहीं हैं,तो क्या हुआ दिल से अमीर हैं|
ये सब ही तो एक धर्मात्मा के लक्षण हैं| ऐसा कहते हुए वह रत्न जडित स्वर्ण पत्र उस किसान को सौंप दिया|