भावना

हमारे जीवन में भाव का बड़ा ही प्रभाव है| हम जिस वस्तु के अन्दर ,जैसी भावना करेंगे, वह हमारे लिए साक्षात वैसा ही प्रतीत होगा| यह पढ़कर आपको शायद विश्वास न होगा कि हम अपने भावों द्वारा दुश्मन को दोस्त बना सकते हैं| हम अपने भावों द्वारा जड़ पदार्थ से मनोवांछित फल प्राप्त कर सकते हैं,परन्तु एक शर्त ये है कि हमारा भाव बहुत strong और स्थिर होना चाहिए| इस दुनियाँ में भावों का फल मिलता है|
एकलव्य का दृष्टांत हम सभी जानते ही हैं| गुरु द्रोणाचार्य राज कुमारों को धनुर्विद्या सिखाते थे| उनका यश चारों तरफ फ़ैल गया था| इसलिए एकलव्य के मन भी इच्छा जागी कि मैं भी इनसे धनुर्विद्या सीखूं| वह द्रोणाचार्य के समक्ष पहुंचा और प्रणाम किया और बोला कि मुझ गरीब को भी धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें| उनने नाम पूछा और कहा कि तुम जानते नहीं मैं सिर्फ राज-पुत्रों को ही सिखाता हूँ, मैं तुम्हें नहीं सिखाऊंगा| वह बालक दृढ़ प्रतिज्ञ था | उसकी भी जिद थी कि सीखूंगा तो इन्हीं से सीखूंगा| और सोच लिया मैंने तो मन ही मन इन्हीं को अपना गुरु माना है तो मैं धनुर्विद्या तो इन्हीं से सीखूंगा| भाव में दृढ़ता थी| गुरु द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बना लाया| उनको साक्षात गुरु मानकर धनुर्विद्या सीखना प्रारम्भ कर दिया|
एकलव्य प्रात:काल इस मूर्ति में साक्षात गुरु द्रोणाचार्य जी के भाव रख उसके समीप खड़े होकर धनुष विद्या की शिक्षा उससे लेता था|
यह मानव शरीर भी ब्रह्माण्ड की तरह है इसमें सब छिपे हुए हैं जैसे सारी विद्याएँ तमाम देवी देवता इत्यादि,मनुष्य जिन वस्तुओं को चाहे, अपने अन्दर से ही प्राप्त कर सकता है जिस विद्या को चाहे अपने आप ही सीख सकता है परन्तु भाव दृढ़ होना चाहिए|
एकलव्य ने उस मिट्टी के पुतले से थोड़े ही दिनों में संयम द्वारा इतनी धनुर्विद्या सीख ली कि यदि जीवन भर भी गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते तो सीख न पाते,और न ही इतना ज्ञान गुरु द्रोणाचार्य अपने किसी शिष्य को ही दे पाए थे|
एक दिन गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को लेकर नदी के किनारे गए| वहां उन्होंने देखा कि एक व्याघ्र नदी में मुँह लगाकर पानी पीना चाहता है | सारे शिष्य ऊंचे टीले पर खड़े थे| गुरु कहने लगे –“हे तुम में से कोई ऐसा है जो व्याघ्र को ऐसा तीर मारे कि न तो वह मरे न ही घायल हो,न भागे न पानी पी सके”|
परन्तु किसी के मुँह से ऐसा शब्द न निकला कि मैं कर सकता हूँ| एकलव्य ने कहा कि आपकी आज्ञा हो तो मैं यह खेल आपको दिखाऊँ?
एकलव्य ने नदी किनारे से सरकंडों की सिरकियां तोड़ लीं और उनके थोथे तीर बना लिए, फिर कमान में लगाकर ,एक साथ उन बहुत से तीरों को सिंह पर छोड़ दिया |ये तीर सिंह की ओर गए और उसके मुँह में भर गए| इसपर व्याघ्र भी आश्चर्य चकित हो चारों और देखने लगा| अब वह न पानी पी सकता, न भागता और न कहीं से कोई खून ही निकला| गुरु इसकी बुद्धिमानी को देख प्रसन्न हो गए| पास बुलाकर पूछा कि तुम किसके शिष्य हो ? एकलव्य ने कहा मैं गुरु द्रोणाचार्य का शिष्य हूँ| गुरु ने कहा द्रोणाचार्य तो मैं हूँ |तब उसने बताया कि मैं आपके पास आया था पर आपने सिखाने से इनकार कर दिया तो मैंने आपकी मूर्ति बनाकर उससे सीखा|
परन्तु तुमने मेरी दक्षिणा नहीं दी, मैं अब देने को तैयार हूँ जो आज्ञा |
तो तुम अपने सीधे हाथ का अंगूठा काटकर मुझे देदो|
शिष्य ने कहा प्रभो यह तन मन सब आपका ही है और अंगूठा काटकर गुरु के समक्ष रख दिया |
इस दृष्टांत से यह पता चलता है —हम भाव के द्वारा जड़ पदार्थों में से भी सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं |

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