Poem: Mrityudand – Shreeram Iyer

Poem: Mrityudand – Shreeram Iyer – UMantra

[अभिभावक]
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||
सूखता है कंठ मेरा; जब सुना हैं मृत्युदंड|
काश काँपते हाथ मेरे; जब किया था मैंने कर्म ||
न सुनी थी उसकी विनती हाथ जोड़े जब खडा था|
ले लिए थे प्राण उसके; परिणाम न किंचित सोच रखा था ||
है यह कैसी विपदा जिसमें फँस चुका हूँ आज मैं |
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||

[१] सोचता हूँ जब व्यथा को; रोंगटे उठ जातें हैं|
काँप उठती है यह आत्मा; तालू सूख जातें हैं||
जानता था न ह्रदय में; राक्षस भी एक बसता है |
कृत्य करता वह है लेकिन; जलना मुझको पड़ता है ||
कैसी ग्लानि की यह अग्नि; जल रहा हूँ आज मैं |
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||

[२] माँ यह कहती थी रे मुझसे; क्रोध यह एक अग्नि है|
जलाती है जीवन को अपने; हृदय को भी झुलसाती है ||
उत्पत्ति होती अज्ञान से इसकी; अंत में मूर्ख बना छोड़ती है |
न बचाया स्वयं को इससे; तो मृत्यु यह ही बनती है ||
काश मानता माँ की बातें; मृत्यु से बच जाता मैं|
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||

[३] मानता हूँ दोषी हूँ मैं; पर दंड इतना क्यों बड़ा है?
संयम खो दिया था मैंने; शायद उसकी यही सजा है ||
सीख लो बन्धु ! मुझ से क्रोध का परिणाम यह |
मत पकड़ना उस डगर को; चल चुका जिस पर आज मैं||
जीने की इच्छा है बाकी; पर मृत्यु सामने ही खड़ी है |
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||

[४] कल मिलूँगा जब मैं ऊपर अपने परमात्मा से|
प्रश्न होगा; मैं ही क्यों ? आखिर इन हजारों में||
एक दिव्य चेतना आ गई मेरे भीतर आज यह |
कह रही है प्रभु की वाणी मुझसे; आज यह ||
काश मानता भगवान को; इस दिन से बच जाता मैं|
हाय ! भाग्य में ही आया; क्यों मेरे यह मृत्युदंड ||

[५] [भगवान ]
जब दिया था तुझको सब कुछ; क्यों न किया था तूने प्रश्न ?
समझाया था जब तुझको इतना ; क्यों किया था अनसुना |
की थी जिसकी हत्या तूने; था वो भी तो अंश मेरा||
छोड़ दे यह भव के बंधन; आ मैं तेरे सन्मुख खड़ा |
तेरे पश्चाताप से आज हूँ; प्रसन्न बड़ा||

[६] [अभिभावक]
क्षमा करें मुझको भगवन; पर सौप दें जीवन मेरा|
मेरे प्यारे, मेरे प्रियतम; कैसे जियेंगे मुझ बिन भला ?
[७][भगवान]
छीना सब कुछ; जिनका तूने जीते वे भी आज हैं |
मांगते हैं न्याय मुझसे; रोज लगाते गुहार हैं ||
नित्य कहते; है अगर तू! क्यों हुआ अन्याय यह ?
अनाथ कर दिया है मुझको ; क्या यह तेरा न्याय है ?
कैसे तज; आज उनको; जिनका मैं ही तात हूँ |
माता, पिता, बन्धु इनका; जीने का आधार हूँ ||
मृत्यु ज़रूरी है लेकिन; हत्या यह एक पाप है |
पापी ! तूने हत्या की है; न्याय तो अनिवार्य है||
जन्म देता मैं सभी को; मृत्यु मेरा अधिकार है|
न्याय कहता आज मुझसे; तू मृत्यु का भागीदार है ||
सारी दुनिया वत्स है मेरी; सबका मैं ही तात हूँ |
न्याय हूँ मैं ; न्याय प्रियतम; धर्म मैं ही ; न्याय हूँ |

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