नारी की तुलना पुरुष से क्यों?

आज ही मैने STAR PLUS का ANTHEM सुना – “ तू ही तू “ जिसे आप सबने भी सुना होगा । क्या शानदार Lyrics हैं ! –

ममता भी तू, क्षमता भी तू, चंचल भी तू,

नटखट भी तू, आंचल भी तू, बादल भी तू, मेरा आज तू, मेरा कल भी तू, मैं तेरा ही,

तुझ से ही , तुझ में ही। मुझ में ही तू, तू ही तू…..। तू ही उमंग, तू ही तरंग, तू ही

डोर – डोर , तू ही पतंग । दुर्गा भी तू , लक्ष्मी भी तू , सरस्वती काली भी तू । तू ही

21 वीं सदी के इस दौर में नारी का पुरुष से Comparison , मेरी समझ में

नहीं आता । अरे ! तुलना तो दो बराबरी वालों मे की जाती है फिर नारी स्वरूपा दुर्गा,

लक्ष्मी, सरस्वती, काली की तुलना किससे संभव है ? ऐसा कहा जाता है शक्ति स्वरूपा मां

के बिना शिव भी शव से हो जाते हैं । शिव और शक्ति एक दूसरे मे ऐसे मिले हुए हैं

जैसे किसी शब्द में उसका अर्थ समाहित है, जिनको अलग नहीं किया जा सकता ।

किंतु लिंग भेद हेतु स्त्री और पुरुष की शारीरिक रचना अलग – अलग हुई है जो कि उस

पूर्णपुरुष (ईश्वर) का अंश मात्र ही है । और वास्तव में सारी सृष्टि ईश्वर का अंश ही है ।

यह अंश, शरीर निर्माण के समय, स्त्री भ्रूण में प्रवेश कर स्त्री बन जाती है और पुरुष

भ्रूण में प्रवेश कर पुरुष । जब वही अंश शरीर से निकल जाता है तो शरीर को हम

मिट्टी कहते हैं चाहे शरीर स्त्री का हो या पुरुष का ।

माता को ही आदि शक्ति, मूल प्रकृति, महामाया कहते हैं । हम प्रकृति माता ( सृष्टि ) में

महामाया के अंश (स्त्री) की कोख मे ही जन्म लेकर नौ माह में विकसित होकर संसार में

आते हैं और स्त्री या पुरुष कहलाते हैं।

में शक्ति यानी स्त्री (आदि शक्ति,महामाया) न हो तो वह शव ही होगा। । किंतु यहां इस

प्रकृति मे तो केवल प्रकृति ही सर्वत्र है तो किसकी तुलना किससे ? फिर तुलना केवल

लिंग भेद को लेकर ! मै अपने नजरिये ये कहना चाहता हूं कि ये तुलना केवल लिंग भेद

को लेकर है तो भी गलत है। अरे ! जिस “नारी” ने मुझ पर इतनी महान कृपा की, कि

नौ माह अपनी कोख में रखकर, अनेक कष्टों को सहकर हमें जन्म दिया, उंगली पकड

यदि गहराई से विचार किया जाये तो इस सृष्टि में केवल प्रकृति ही तो है।

सच तो यही है कि यहां पर सारा खेल प्रकृति माता का ही है। इस प्रकृति

जिसमें शक्ति निहित होगी, वही शक्तिवान कहलाता है । अर्थात यदि पुरुष

कर चलना सिखाया, अनेक अच्छी – बुरी बातों की हिदायतें देकर, हमें अच्छे संस्कार

देकर संसार मे निर्भय होकर जीना सिखाया, उस परम पूज्य “ नारी ” की मुझ से क्या

तुलना? आप कहेंगे कि आप तो “मां” से तुलना कर रहे हैं। पर मै बात “मां” की नहीं ,

“नारी” की ही बात कह रहा हूं क्योंकि मुझे जन्म देने वाली भी “स्त्री” ही तो है। जिसमें

सारे ईश्वरीय गुण भरे हैं क्यों कि ये सारे गुण “स्नेह, दया, वात्सल्य, ममता क्षमा धैर्य,

धर्म”, वो अपने अंशी ( आदि शक्ति ) से लेकर ही संसार में आयी है।

नहीं पा रहे हैं । वो तो यहां आनंद देने के लिये अनेक प्रकार के खेल, खेल रही है और

हम क्षणिक सुख को ही सब कुछ समझ कर, न करने वाले सारे काम कर जाते हैं और

अंत में केवल दु:ख ही पाते हैं। उस आनंद दायिनी (आदिशक्ति मां ) के खेल को देखो

तो पता चले कि वो – मां, पत्नी, पुत्री, सखी, वेश्या, और न जाने कितने रूपों में प्रकृति

को आनंदित कर रही है किंतु हम ? …… हम अज्ञानवश ये याद नहीं रखते कि जो

स्वयं में असीम पौरुष बल का दावा करते थे, वो महिषासुर, रक्तबीज, चंड-मुन्ड, रावण,

दुर्योधन और अनेक लोग नारी शक्ति का अपमान कर, मिट्टी में मिल गये ।

वास्तव में हम भ्रम में पड जाते हैं, उस महामाया के खेल को ठीक से जान

इसलिये किस कारण “स्त्री” अपनी तुलना पुरुष से करे ? जो कि सर्व श्रेष्ठ

या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ॥

 

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