निगरानी भी जरूरी है

हम अक्सर देखते हैं कि जब कोई किसान अपने खेत में कुछ पौधे लगाता है तो उसपर बड़ी निगरानी रखता है कि पौधा सही तरह से पनप रहा है या नहीं, उसे सही हवा, पानी, धूप, खाद मिल रहा है या नहीं, पौधे को समय – समय काट छांट भी करते रहना पड़ता है जिससे उसको एक सही एवं सुन्दर आकार मिले| ठीक उसी प्रकार एक बालक को भी एक अच्छा नागरिक तैयार करना भी कोई आसान काम नहीं है| एक छोटे बालक का मन बड़ा ही कोमल होता है उस वक़्त उसे हम जैसे ढाल लें वैसे ही वह ढल जाता है| जैसे दो तोतों की कहानी –है, वे दोनों भाई  ही थे और तेज आंधी में उड़कर एक डाकुओं के पास पहुंचा और दूसरा ऋषियों के आश्रम में| उन पर संगति का ऐसा प्रभाव पडा कि पहला कहता कि पकड़ो भागने न पाए, मारो काटो इत्यादि और दूसरा कहता कि अतिथियों का स्वागत करो,  इनको अर्घ्य दो, आसन दो, जलपान करवाओ इत्यादि| तात्पर्य यह है कि हमें  (self desciplined) खुद अनुशासित रहना होगा जिससे कि बच्चे अनुशासन सीखें, क्योंकि एक बार जो संस्कार पड़ जाएँ उन्हें बदलना आसान नहीं| इसीलिए गुरु व माता-पिता को अपने शिष्यों व बच्चों के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है| लोभ, अहंकार जैसे किसी भी अवगुण को आरम्भ में ही उखाड़ फेंकना चाहिए जिससे वह  न पनप सके|

इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है| जांजल्कि  एक महान ऋषि व पूर्ण तपस्वी थे| समुद्र के किनारे जल में तपस्या कर रहे थे| उन्हें आत्म तत्व का कुछ बोध हो गया फिर भी जल से बाहर खड़े होकर तपस्या में लीन हो गए| समय बीतता गया और वे वैसे ही तपस्या में लगे रहे| सिर पर जटाएं बड़ी बड़ी हो गयीं| इसे सुन्दर घोंसला समझ पक्षी ने अंडे दे दिए| जब उन्हें इसका आभास हुआ तो सोचा अब मैं इन्हें नुकसान तो नहीं पहुंचा सकता, इसलिए बच्चे  निकलने का इंतज़ार करने लगे| बच्चे बड़े हुए और एक दिन कहीं प्रस्थान कर गए|

ऐसा कहा गया है कि—‘जो यह समझता है कि वह ज्ञानी हो गया है उसने कुछ भी नहीं जाना|’

गुरु (भगवान) को जब अपने शिष्य (भक्त) का सुधार करना होता है तो एक न एक प्रसंग आ ही जाता है| महर्षि को एक मायावी शक्ति के दर्शन हुए तो महर्षि ने पक्षी के अंडे देने और बच्चे निकलने वाली घटना बतलाई| इसपर मायावी शक्ति ने व्यंग करते हुए कहा—तुम तो अभी अध्यात्म में कच्चे हो | बनारस का तुलाधार वैश्य तो तुमसे अच्छा है जबकि वह तो एक गृहस्थ है|

शब्दों ने चोट पहुंचाई, अतः महर्षि निकल पड़े बनारस के लिए और तुलाधार वैश्य से मिलने| जल्दी ही उनका घर मिल गया| उन्होंने देखा   एक साधारण सा वैश्य घर गृहस्थी का सामान बेचने में व्यस्त है परन्तु उनके मुखमंडल पर तेज है और आकर्षण| महर्षि ने उन्हें प्रणाम किया|

तुलाधार ने महर्षि का शिष्टतापूर्वक अभिवादन और सत्कार किया और पूछा आप महर्षि जांजल्कि हैं, आप ही की जटाओं में पक्षी ने अंडे दिए थे, आपको ही मायावी शक्ति ने मेरे पास भेजा है, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ| ये घटना तो एकांत में घटी थी जिसे मेरे और उस मायावी  शक्ति के अतिरिक्त और कोई भी तो नहीं जानता है| आश्चर्य चकित हो गए कि  इन्हें यह कैसे पता चल गया?

मुनि को आश्चर्यचकित देख तुलाधार ने कहा— हे महात्मन् ! जिसने अपने शुद्ध आचरण और गुरुनिष्ठा से एकाग्रता को प्राप्त कर लिया हो वह संसार के हर कार्य को अनायास ही  जान जाता है| गुरु निष्ठा से अहंकार का नाश होता है जो गुरु कृपा से ही संभव है | मैं संसार के सारे कार्य करता हूँ परन्तु न फल की इच्छा, न लोभ-मोह, न किसी को हानि पहुंचाता हूँ न कुछ स्वार्थ ही रखता हूँ| तुलाधार के उपदेश से महर्षि का अहंकार दूर हुआ और वे पूर्ण हुए|

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