सत्य का दर्शन– दिव्य नेत्र

एक अत्यंत मोहक प्राक्रतिक स्थल पर कुछ लोगप्राक्रतिक सौन्दर्य

का आनंद ले रहे थे वहां एक कलाकार paintings का शौकीन अपने art से सम्बन्धी

सब सामग्री लेकर आया और उसने वहां के प्राक्रतिक सौन्दर्य को अपनी कलाकारी

से एक Canvas पर उतारना शुरू किया| थोड़ी ही देर में उसके इर्द – गिर्द कुछ लोग

खड़े होकर उसका art देखने लगे| जब उसका कार्य पूर्ण हुआ तो सबके मुह खुले के

खुले रह गए| देखने वाले कुछ देर तक तो कुछ बोल ही न सके| फिर सबने ताली

की गडगडाहट से उसकी तारीफ की| बाद में एक ने कहा भाई! कितने सुन्दर दृश्य

का चित्रण किया है तुमने! ये तुम्हारी कल्पना है या कहीं ऐसा सौन्दर्य भी है?

कलाकार ने कहा – ये कल्पना नहीं ये दृश्य तो यहीं का है जिसे हम सब देख रहे

हैं फर्क ये है कि तुम जिसे साधारण नज़र से देख रहे हो उसी को मै आत्मसात

कर रहा हूँ और चूँकि कलाकार हूँ तो उसका चित्रण भी कर रहा हूँ| पुनः उस भाई

ने कहा – लेकिन कलाकार! तुम्हारे चित्रण ने सत्य को ऐसा दिखाया जैसे कि

व्यक्ति स्वयं को दर्पण में देखे|

इस घटना के साथ – साथ ही मुझे एक घटना याद आ गई| मेरे

बड़े भाई ने एक महापुरुष से पूछा कि- “ क्या आपने ईश्वर को देखा है?” उन्होंने

कहा कि तुम ये इसलिए पूछ रहे हो क्यों कि तुमने श्री रामकृष्ण परमहंस और

नरेन्द्र की वार्ता को पढ़ा होगा, पर मै तुमसे ये कहता हूँ कि ईश्वर को तुम भी

देख रहे हो और मै भी| लेकिन फर्क ये है कि मै उसे पहचानता हूँ और तुम

नहीं|और जो पहचान करा दे उसे ही “ गुरु” कहते हैं| जैसे किसी भीड़ में खड़े एक

famous व्यक्ति को जिसका हमने केवल नाम ही सुना है, मिलने जाएँ तो उसे

देखते हुए भी हम पहचान नहीं सकते| किसी से पूछते है तो वो बतलादेता है कि-

यही तो हैं जो सामने खड़े हैं| इस प्रकार उस को हम जान लेते हैं| इसी तारतम्य

में मुझे “गीता” की घटना का स्मरण हो रहा है कि अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं

कि तुम ईश्वर हो कैसे मानें? तब श्री कृष्ण कहते हैं कि मै तुम्हे दिव्य नेत्र प्रदान

करता हूँ तब तुम मेरे ईश्वरीय स्वरुप को जान सकोगे|और इस प्रकार अर्जुन ने

मित्र श्री कृष्ण को भगवान् श्री कृष्ण देखा| वास्तव में अर्जुन के नेत्र तो वही थे पर

श्री कृष्ण ने उन्ही नेत्रों को दिव्य कर दिया| बस पहचान हो गई|

संसार में हम भी बहुत कुछ देख रहे हैं किन्तु हमें भी चाहिए

एक ऐसा मित्र, ऐसा जानकार मिल जाये जो हमारे इन्हीं नेत्रों को दिव्य करदे

जिससे हमें भी संसार की , जीवन की वास्तविकता का ज्ञान हो जाये| इस

वास्तविक ज्ञान से लाभ यह होगा कि हम मानवता के मूल्यों को जान सकेंगे| हम

दूसरों के दुःख को जान सकेंगे और उन्हें सुख पहुचाने का प्रयास करेंगे|

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