व्यक्ति जितनी ही ऊँची श्रेणी का होगा उसका दान देने का तरीका उतना ही श्रेष्ठ होगा |आप सभी रहीम साहब को कवि के नाम से तो जानते ही हैं ,परन्तु वे उच्च कोटि के संत थे |वे अपने दान देने के अनूठे तरीके के लिए प्रसिध्द थे |वे जब कभी किसी को दान देते थे तो ,वे कभी उसकी तरफ नहीं देखते थे |वे हमेशा अपनी नज़रें नीची करके दान देते थे |जब तुलसीदास जी ने रहीम जी के इस अनूठे दान देने के तरीके के के बारे में सुना तो उन्होंने रहीमजी के पास एक दोहा लिखकर भेजा –
ऐसी देनी देन ज्यों कित सीखे हो साँई |
ज्यों ज्यों कर ऊँचों करो ,त्यों त्यों नीचे नैन||
आप इसप्रकार से दान जो देते हो ,ये तरीका आपने सीखा कहाँ से ? आपके हाथ जितने ऊपर उठते जाते हैं ,उतनी ही नज़रें नीची होती जाती हैं |रहीमजी जानते थे कि तुलसीदास जी का इस बात के पीछे क्या राज़ छिपा है |पर वे उन्हें एक मौका देना चाहते थे कि वे कुछ पंक्तियाँ लिखकर जवाब दें |रहीमजी ने जवाब में ये दोहा लिख कर र्भेजा—
देनहार कोई और है भेजत जो दिन रैन |
लोग भरम हम पर करें तासे नीचे नैन ||
भेजनेवाला तो कोई और है जो दिन रात भेजता ही रहता है ,परन्तु लोग भ्रम करते हैं कि मैं दे रहा हूँ |इसी कारण शर्म से मेरी निगाहें नीचे झुक जाती हैं |
इस विश्व में दाता तो एक ही है चाहे उसे किसी भी नाम से पुकार लो |चाहे राम कहो या रहीम ,गुरु कहो या मौला कहो या ईसा कहलो वह सर्वशक्तिमान परमात्मा ही है जो अपनी हर संतान का ध्यान रखे हुए है ,यह अलग बात है कि हम उसके उस प्यार को समझ नहीं पाते हैं और जैसे ही कोई दुःख तकलीफ आती है तो झट से कह देते हैं कि क्या तुम्हें ये तकलीफ़ देने के लिए मैं ही मिला था ?
पर वास्तविकता यह है कि वह परम दयालु ,इतना दयालु है कि किसी भी प्राणी को भूखे सोने नहीं देता|
कहीं न कहीं से किसी न किसी के द्वारा उसके भोजन की व्यवस्था कर ही देता है |किसी भी प्राणी को दुखी देखकर वह उतना ही दुखी नहीं होता जितना एक माँ होती है बल्कि उससे अधिक दु:खी होता है|वह हर समय हरएक के पास शंख चक्र गदा पद्म लेकर तो पहुँच नहीं सकता ,इसलिए वह किसी न किसी के माध्यम से हमारी ऐच्छिक वस्तु हमतक पहुंचा देता है|एक महान संत जिनकी आय साधारण सी थी ,उन्होंने जैसे तैसे २५ /- रुपयों का इंतज़ाम करके ,एक दलित परिवार जिसे बंधक रखा गया था ,बंधक रखने वाले को देकर उसे बंधन से मुक्त करवाया ,जिससे उसका मोहल्ला उसे काम करने के लिए वापस मिल गया |उस दलित की पत्नी ने कहा –पंडितजी आप तो हमारे लिए भगवान् ही बनकर आये और हमारा दुःख दूर किया|वही परमात्मा हमारे हाथों से दिलवाता भी है और फिर हम पर प्रसन्न होकर हमें न जाने क्या –क्या दे देता है |कितना कृपालु है ,कितना दयालु है |
एक महापुरुष किसी यात्रा पर थे |चलते चलते थक गए ,भूख भी लग गयी |उन्होंने अपने मालिक को याद किया और कहा –मेरे भोजन की व्यवस्था कर ,भूख लगी है ,जिस जगह वे थककर रुक गए और प्रार्थना कर रहे थे वहां सामने ही एक घर था जहाँ एक महात्मा रहते थे उन्हें पता चल गया कि द्वार पर कोई भूख से व्याकुल व्यक्ति बैठा है |उन्होंने भोजन की थाली लगवाकर भिजवादी ,उसने अपने भगवन का स्मरण किया और भोजन किया और जिस दिशा में उनके गुरु का स्थान था उस ओर मुड़कर अपने गुरु को धन्यवाद देने लगा कि तेरी कितनी कृपा है कि तूने मेरा कितना ध्यान रखा और मेरे भोजन की व्यवस्था कर दी ,क्योंकि वह जानता था कि इस अनजान जगह में मेरी व्यवस्था करने वाला मेरा मालिक ही है |
अब बात यह है कि हमें सद्बुद्धि प्रदान कर दान दिलवाने वाला भी तो वही परमात्मा है |तो हमें यह जानना जरूरी है कि दान करने का श्रेष्ठतम तरीका क्या है |दान भी तीन प्रकार के होते हैं |
पहला प्रकार वह है जिसमे देने वाला व्यक्ति सबके सामने किसी व्यक्ति को आवाज़ देकर दे |दूसरा तरीका वह जब देने और लेनेवाले को ही पता चले |तीसरा तरीका ऐसा है कि जिसमे लेनेवाले को यह पता ही नहीं चल पाता कि किसने भेजा|
प्रथम प्रकार जो है वह निम्न श्रेणी का है |दूसरा प्रकार उत्तम है और तीसरा प्रकार अति उत्तम है |ऐसा इसलिए है कि वह व्यक्ति तो परमात्मा के तुल्य हो गया जिसने यह पता ही नहीं चलने दिया कि दान किसने दिया | किसी ने उस परमात्मा को आज तक देते देखा ही नहीं |
प्रथम प्रकार वाले अपना नाम ,यश चाहते हैं |द्वितीय प्रकार के लोग स्वर्ग या सुख चाहते हैं तृतीय प्रकारके लोग अपना कर्तव्य समझकर करते हैं
अतः यह आवश्यक है कि हम तृतीय प्रकार के दाता बनें |