संसार में घटती हुई एक जैसी घटनाओं को यदि हम ध्यान से देखें तो हम यह पाते हैं कि उसी घटना से कोई दुखी है तो कोई सुख का अनुभव करता है – इसका कारण सिर्फ और सिर्फ मन ही तो है- इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है|
एक समय की बात है जब एक सेठ ने ग्यारस (एकादशी) के उपवास के दिन भोजन करवाने के लिए एक ब्राह्मण को निमंत्रित किया, परन्तु उनका स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्होंने अपने दो शिष्यों को भेज दिया||
सेठजी ने भर पेट स्वादिष्ट भोजन करवाया| अब बारी आई दक्षिणा की| अपनी श्रद्धानुसार उन्होंने दक्षिणा भी दी| परन्तु पंडितजी ने अपने दोनों शिष्यों के हावभाव देखे तो बड़े असमंजस में पड़ गए कि क्या हुआ ? किसी को दक्षिणा देने में भेदभाव तो नहीं कर दिया सेठजी ने? उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर पूछा —
तो वह शिष्य बोला नहीं गुरूजी! दिया तो दोनों को बराबर ही| फिर तुम दुखी क्यों?
मैंने सोचा इतना बड़ा अमीर सेठ है तो कमसेकम दक्षिणा में 51/- तो देगा परन्तु उसने सिर्फ 21/- रूपये दिए|
अब दूसरे को बुलाकर पूछा अब ये बताओ कि तुम क्यों खुश हो? वह बोला मैंने सोचा था कि दक्षिणा में 11/- रुपये से ज्यादा क्या देगा परन्तु उसने तो 21/- दे दिए| यही मेरी प्रसन्नता का कारण है|
इस घटना से यही सीख मिलती है कि हमें अपने मन को इस तरह की व्यर्थ की बातों में नहीं लगाना चाहिए| दान दक्षिणा जो प्रभु दिलवाना चाहें दिलवाएंगे| हमारी मनोकामानानुसार न मिले तो वही दुःख का कारण बनता है और हमारी आशा से अधिक मिल जाए तो ख़ुशी व सुख प्रदान करती है|
अर्थात् मन ही सुख-दुःख का कारण है और बंधन और मोक्ष का कारण भी मन ही तो है!!!