>मैने एक श्रेष्ट महिला का प्रवचन (Lecture) सुना और उनकी बात मुझे बहुत ही लोजिकल ( Logical ) लगी। वो यह कह रही थी कि- यदि हम किसी से कुछ रुपये उधार इस वायदे पर लें कि आप का रुपया हम एक माह के बाद वापस कर देंगे। किन्तु एक माह के बाद जब हम दोनों एक दूसरे के सामने आये तो स्वाभाविक रूप से दोनों की पोशाकें (Dress) , सजावट (Costume ) बदले हुए होंगे। तो क्या उधार देने वाला अपने रुपये वापस नही लेना चाहेगा? जरूर लेना चाहेगा! इसी तरह हम कुछ वर्षो के बाद फिर बदले हुए पोशाक (Dress), सजावट (Costume ) में मिलते हैं तो क्या वो अपने रुपये वापस नही लेना चाहेगा? इस तरह समय चाहे कितना भी बीत जाये ,पोशाकें(Dress) , सजावट (Costume ) चाहे कितनी भी बार बदल जाये, उससे क्या? उधार तो उधार ही है! चुकाना ही पडेगा, हमारे शास्त्रों के अनुसार हमारा पुनर्जन्म भी हमारे पोशाक(Dress) बदलने जैसा ही है। यानी जिस प्रकार कपडों के फट जाने पर हम उन्हें त्याग देते हैं उसी प्रकार शरीर के खराब हो जाने पर आत्मा भी उस शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। ऐसा होने पर भी हमारा उधार तो बाकी है ! वो तो हमें चुकाना ही पडेगा। हम अक्सर देखते हैं कि उधार लेकर समय से वापस नहीं करने पर देने वाला हम से जबरदस्ती छीन लेता है । किन्तु यही प्रक्रिया शरीरों के बदलने के बाद हुई तो हम कहते हैं कि भगवान ने हमारे साथ अन्याय किया। हमारा रुपया किसी ने छीन लिया। अब चूंकि नये शरीरों में आने पर हमारे लेन – देन का हिसाब दोनों को याद नही रहेगा किन्तु प्रकृति ( Nature) का साफ्टवेयर ऐसा है कि नये शरीरों में आने पर भी यदि हमारे लेन – देन का हिसाब पूरा नहीं हुआ तो प्रकृति हमसे जबरदस्ती चुकता करवा देती है। यही प्रक्रिया हमारे सारे कर्मो पर भी लागू होती है। जब हम दूसरों को प्यार देते हैं तो बदले में हमें भी प्यार ही मिलता है।और जब हम दूसरों से घृणा करते हैं या कष्ट देते हैं तो हमें भी लौट कर वही मिलता है चाहे पोशाकें (Dress) , सजावट (Costume ) वही हो या नया शरीर लेकर बदल गये हों। फिर हम ईश्वर को क्यों बीच में लाते हैं? कर्म हमने किया तो फल भी हमारा। जो दिया, वापस लिया और जो लिया वापस दिया । तब भगवान को क्यों दोष देते हैं हम? इस कारण ही महान एवं पूजनीय जन यही शिक्षा देते हैं कि हमारा व्यवहार उत्तम हो। हमारे द्वारा किसी को भी शारीरिक या मानसिक कष्ट न पहुंचे क्यों कि बाद मे हमें वही सब वापस मिलना है। दुखों से बचने का एक मात्र यही उपाय है कि हम अपने व्यवहार को शुद्ध और पवित्र कर लें।
निकट भविष्य में हमें जिस मकान में रहने जाना हो, हम यही चाहेंगे कि वह साफ सुथरा हो। उसमें कोई गंदगी न हो। इसी प्रकार जिस संसार में हमें रहना है, वह हमें सुख देने वाला हो यही चाहेंगे हम! वास्तव में यह संसार ही तो हमारा घर है। हमें लौट – लौट कर यहीं आना है तो फिर हम अपने कर्मों से, विचारों से इसे क्यों प्रदूषित करें? एक यही सोच और उस पर अमल (Implement) करें तो हम स्वयं, समाज और सारा संसार दुखों से बच सकता है ऐसा मेरा विचार है।
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