कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग लोग अक्सर करते हैं। जैसे- इन्सानियत, मानवता, मनुष्यता इत्यादि। इ न शब्दों पर विचार करें तो मन में सबसे पहला प्रश्न यही आता है कि मानव, इन्सान या मनुष्य कौन है ? क्या है? कैसा है? यानी उस के गुण क्या हैं?। आज चूंकि हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं इस कारण क्या, क्यों और कैसे? ये बडे ही अहम प्रश्न हैं और जब तक इन प्रश्नों का सटीक उत्तर न मिल जाये हम बात मान भी नहीं सकते।
यह निश्चित है कि जिस किसी भी विद्वान ने ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में जितनी भी खोज की, जितना भी जान पाया उसका यही प्रयास रहा कि उसकी खोज, जानकारी को सभी जानें जिससे अगले खोजी को पुनः श्रम न करना पडे। इस कारण हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक पूर्व की खोजों, अवधारणाओं एवं विचारकों के विचारों को पढ्ते हैं तब जाकर नवीन खोज करने लायक बन पाते हैं। अतः किसी भी विषय की जानकारी के लिये तत्संबंधी पूर्व की खोजों, विचारों को जानना परम आवश्यक है।
संस्कृत के एक श्लोक मे लिखा है कि – आहार, निद्रा एवं मैथुन इन क्रियाओं के करने में मनुष्य एवं पशु समान हैं। अतः जिस मनुष्य की सोच आहार, निद्रा एवं मैथुन तक ही सीमित है वह नर शरीर पाकर भी पशु के समान ही है। इससे आगे सोच बुद्धि एवं ज्ञान पर आधारित है। और इसको पाकर ही मनुष्य को कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध हो पाता है। अर्थात वह ये जान लेता है कि संसार में उसका माता – पिता ,परिवार, मित्र , पडोस, समाज, देश के प्रति क्या कर्तव्य है और वह यह भी जान लेता है कि अकर्तव्य यानी वो काम जो कभी नहीं करना चाहिये।
विचारों एवं उस पर आधारित कर्मों को देखें तो मनुष्य के तीन स्तर दिखते हैं। पहला वो जिसके विचारों एवं कर्मों से दूसरे सभी सुख एवं आनन्द पाते हैं। दूसरे वो जिसके विचारों एवं कर्मों से दूसरे सभी कष्ट पाते हैं। इस प्रकार पहले प्रकार के मनुष्यों में देवत्व और दूसरे प्रकार के मनुष्यों में राक्षसत्व है। और इन दोनों से ऊपर मनुष्यत्व है।क्योंकि मनुष्य ईश्वर की एक अनुपम कृति है जिसके अंतर में समस्त ईश्वरीय गुण विद्यमान होते हैं जिन्हें हम अपने विचारों एवं संस्कारों से ढक देते हैं मेरे मार्गदशक का कथन है कि ” यदि मनुष्य पूर्ण विकास मे आ जाये तो वह सम्पूर्ण ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण हो जाता है”। क्या कभी सोचा है आखिर हम से मनुष्यता दूर कैसे हो गयी? वह दूर इसलिये हो गयी कि हमने बनावटों के बहुत सारे खोल ओढ लिये हैं। हमने जाति का, धर्म का, सम्प्रदाय का, अमीरी का, पद का, विद्वत्ता का और ऐसे अनेकों बनावट के खोल ओढ लिये हैं कि आज हमारी वास्तविकता क्या है हम स्वयं नही जानते। हम अपनी वास्तविकता को तब जान सकेंगे जब बनावट के सारे खोल निकाल फेकेंगे और तब मनुष्यता की उस वास्तविकता इस तरह जान सकेंगे जहां, मनुष्य अपने में सब को और सब में अपने को देखता है, जहां मनुष्य स्वयं भूखा रहकर दूसरे का पेट भरता है। जहां मनुष्य स्वयं दुख सहकर दूसरों को सुख देता है और समूचे जड – चेतन से विशुद्ध प्रेम हो जाता है।
मनुष्य ईश्वर का ही अंश है अतः उसमें अनंत शक्तियां समायी हुई हैं किन्तु आवश्यकता यह है कि वह अपने पूर्ण विकास में आ जाये और अपने वास्तविक एवं असीम स्वरुप को जाने। इस पूर्ण विकास के लिये हममें वो क्षमता नहीं कि हम स्वयं के ओढे हुए बनावट के सारे खोल निकाल फेकें। इसके लिये हमे ऐसे महापुरुष का सानिध्य पाना होगा जो नाम, रूप की सीमा में रहते हुए भी असीम हो।वही हमारे बनावट को दूर कर हमारा पूर्ण विकास कर सकता है और यही अवस्था मनुष्यता की होगी।